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सहजता

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  व्यक्तित्व का चुंबकीय आकर्षण किसी का व्यक्तित्व यूँ तो बहु आयामी होता है किसी एक गुण या कई गुणों का संयोजन नहीं अपितु मनुष्य के संपूर्ण आस्तित्व का प्रतिबिंब होता है!  सहजता मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण के समस्त उत्क्रष्ट् बिंदुओं मैं एक मुखर व सबको आकर्षित करने का अतिशय प्रभावी विन्दु है जिसमें तरलता व सरलता जैसे गुण समाहित हैं! सहजता अंतःकरण की पवित्रता को प्रतबिम्बित करता है!  सहजता से अभिप्राय मनुष्य के व्यवहार के उस पक्ष से है जिसमें उसका प्रकट व्यवहार और उसके अंतःकरण मैं लेशमात्र अंतर नहीं होता है वह जैसा अंदर है वैसा ही बाहर है! अर्थात ऐसा बिलकुल नहीं है कि वह अंदर से तो कुछ और है और बाहर प्रकट कुछ और कर रहा है! सहज व्यक्ति वोही जीता है जो उसके अंदर होता है! अतः उसके अंतर्हृदय मै और वाह्य व्यवहार मैं कोई अंतर नहीं होता है!  ऐसे सहज व्यक्ति का मन निश्छल होता है क्योंकि वो न तो अपने आप से और न किसी और के साथ ही कोई छल कर रहा है! वह सदेव निश्चिंत रहता है ऐसा व्यक्ति मिथ्याचारी नहीं हो सकता है  इसके विपरीत जब कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ (उदेश्य) की सिद्धि के लिए जानकर मिथ्या आचरण करत

सनातन ज्ञान और वर्तमान का विज्ञान

  भारतीय आध्यात्म: हमारे पुरातन शास्त्र (चार वेद), पुराण, उपनिषद, गीता रामायण (वाल्मीकि द्वारा रचित) व ऋषि मुनियों द्वारा रचित अन्यान्य ज्ञान ग्रंथ तदनुसार रामचरित मानस आदि में ब्रह्म को अनंत अर्थात जिसका न आदि है न कोई अंत कहा गया है। ब्रह्मांड के आस्तित्व अतः उसके होने का अनुभव (ज्ञान) तो किया जा सकता है किंतु उसको व्यक्त नहीं किया जा सकता है इसलिए उसे अव्यक्त (भाषातीत) कह कर नेति नेति कहा गया। जिसका अभिप्राय है कि वह केवल अनुभवगम्य है,वर्णातीत है, जो आत्म पोषित है, परमसत्य है, नित्य नूतन है अतः सनातन है।  यह हम सब की जिज्ञासा हो सकती है कि जो ब्रह्म इतना विराट है जो बुद्धि से परे व इंद्रियातीत है तब इसके आस्तित्व को कैसे जाना गया अर्थात कोई कैसे जानेगा। अस्तु: जो बुद्धि का विषय नहीं तथा जो इंद्रिय का भी विषय नहीं है वह स्थूल (जड़) नाशवान शरीर से परे केवल आत्मा का विषय है। क्योंकि देह में बध्य जीवात्मा जब त्याग और तप के द्वारा देहाभिमान से परे साधक बन उस परमतत्व् को अपना साध्य मानकर साधन (आराधन) करता है तो वह उस अनंत अविनाशी शाश्वत सनातन परमात्मा का अनुभव करता है, यह उसके जीवन में पर

स्वयम की खोज

 स्वयम की खोज, यध्यपि प्रकटतः एक जटिल विषय तो है क्योंकि इसमें खोज करने वाला ही खुद अपने आप की खोज करता है, लेकिन यह अतार्किक व अव्यवहारिक नहीं है।  भौतिक जगत में खोज का आधार वाह्य दृश्यमान जगत होता है अर्थात जिसका आधार सन्मुख व्याप्त पदार्थगत भौतिक विषय होता है जो दिखाई दे रहा है, स्पष्ट है एवम प्राप्तव्य है जिसके प्रति हमारी जिज्ञासा प्रेरणा का कारण बनती है और खोज का विषय भी।  इसके बिपरीत स्वयम की खोज  के लिए हमारे समक्ष हम स्वयम ही होते हैं अर्थात हमें ही खुद की खोज अपने आप करनी होती है। यह हमारे लिए जटिल तो हो सकती है लेकिन अव्यवहारिक कदापि नहीं अपितु जीवन की सोदेश्यता के लिए परम आवश्यक भी है। यदि हम स्वयम को जान पाए तो बाह्य जगत को जानना फिर निशेष हो जाता है अर्थात अनावश्यक। स्वयं की खोज् के लिए भी जिज्ञासा उत्कंठा का होना अति आवश्यक है।  में कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और संपूर्ण जगत अंततः किसकी रचना है। इन यक्ष प्रश्नो को लेकर हम स्वयम की खोज के लिए प्रेरित होते हैं।  वर्तमान में हमारे पास ग्रंथ हैं, तपोनिष्ठ संतों का सनातन ज्ञान है, निर्विवाद पंथ एवम स्वयम का विवेक है लेकिन यदि जि

मूल्यों का संरक्षण

  मानव जीवन अमूल्य है क्योंकि मानव जीवन मैं ही आत्म उत्सर्ग संभव है। निसंदेह हम सौभाग्यशाली है जो  हमारा जन्म भारतवर्ष जैसी तपोनिष्ठ भूमि पर हुआ है जहाँ ईश्वर के २३ अवतार हुए हैं जो इस बात का प्रमाण हैं  कि हमारे पूर्वजों की ईश्वर खोज जिन विधाओं को प्रतिपादित करती है वे पूर्ण हैं और पूर्ण पुरुष परमात्मा से मिलाने वाली हैं निसंदेह यह हम को भली भाँति ज्ञात भी है। किसी देश की संस्कृति तात्कालिक नहीं होती है वह उस देश के पूर्वजों के द्वारा समीचीन जी गई अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्रमिक संरक्षित   होती है। हमारी संस्कृति सनातन है जिसका न आदि है और न ही अंत। हमारे यहां हुए २३ अवतारों मैं राम और कृष्ण के दो अवतार ऐसे हैं जो क्रमशः ७५०० व ५००० वर्षों बाद भी सर्वाधिक पूजनीय व समाज के हर वर्ग के लिए भगवान ही हैं। राम और कृष्ण जैसे दो चरित्रों से हमारी संस्कृति सबसे ज्यादा   समृद्ध और पूर्ण है जिनके जीवन चरित्र व उनके हितोपदेश एवम संदेश हमारे लिए ही नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए उपयोगी है। क्या हम वह सब जीकर भावी पीढ़ी के लिए नज़ीर बन पा रहे हैं। आज पाश्चात्य देशों मैं राम और कृष्ण की

सांस्कृतिक मूल्य

  हमारा ईश्वर मैं अटूट विश्वास और आस्था इस बात का प्रमाण है की हम ईश्वर को हृदय की गहराई से मानते है, उसके आस्तित्व को स्वीकार करते हैं एवम यथेष्ट उसका भजन और पूजन करते हैं। यह हमारा संस्कार है जो हमें अपने परिवार व समाज के परिवेश से  मिला है। यह अच्छी परम्परा है जो परष्पर सामाजिक सरोकार, एकजुटता, सोहार्द व भाईचारे के सूत्र मैं सबको बांधे रखती है। इन्ही संस्कारों के कारण मानवता, सेवा, दया, करुणा आदि संवेदनाएं भी समाज के आस्तित्व मैं रहती हैं जिसके केंद्र मैं हमारा ईश्वर विश्वास व आस्था ही है। ये इसका एक पहलू है। अगर हम भारतीय, समाज, सभ्यता का प्रारंभ से वर्तमान तक के विहंगम परिद्रष्य का अवलोकन करें तो पूर्ववर्ती कालखंडों की अपेक्षा आज इन मूल्यों मैं काफी गिरावट आ चुकी है। समाज मैं एक क्रमिक बदलाब तीव्र गति से निरंतर जारी है। हमारी अपनी मूल सनातन संस्कृति व वैदिक परम्पराओं मैं अनास्था सी होती जा रही है। सभ्यता और संस्कृति की नई परिभाषाएं घड़ी जा रही हैं। यूँ तो हमारी संस्कृति सनातन है, भूमंडल पर सबसे प्राचीन है जिसमें मानव सभ्यता के आध्यात्मिक व मानवीय सर्वोच्य मानदंड स्थापित हैं, राम

जीवन की सोदेश्यता

मानव जीवन ईश्वर की उत्क्रष्ट् रचना है! श्रष्टि की रचना से पूर्व एक अकेला ब्रह्म ही था उस परम चेतना मैं संकल्प हुआ "एकोहम् बहुश्यामि" अर्थात मैं एक हूँ अनेक हो जाऊँ! चूंकि वह परम चेतना निर्विकल्प है अशरीरी परमात्मा के संकल्प मात्र से शरीर धारी मनुष्य की रचना हुई जो ईश्वर का विकल्प तो नहीं था लेकिन मानव देह मैं परमात्मा अंशी का अंश रुप आत्मा समाविष्ट हुई जिससे स्थूल देह धारी मनुष्य अपने निज स्वरूप मैं शाश्वत ईश्वर का ही आत्मरूप अंश है! शरीर मैं ईश्वर रूप से वह अशरीरी व अविनाशी ही है! अतः मनुष्य शरीर मैं आत्म स्वरूप ईश्वर अंश देह से बिलकुल भिन्न है अर्थात वह शरीर नहीं है! यह तथ्य वेदानुसार निर्विवाद है!  रामचरित मानस मैं स्पस्ट है कि "ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी"  इसमें कहीं कोई संदेह नहीं हम शरीर नहीं हैं अर्थात हम विशुद्ध आत्मा ही हैं यह अनेक प्रकार से स्वय सिद्ध है!  ईश्वर रचना की सोदेश्यता  यह नितांत गहन चिंतनीय एवम मंथन का विषय है कि उस परम तत्व, अगम्य परम सत्ता को श्रष्टि निर्माण, तदंतर मानव उत्पति के संकल्प की जागृति क्यों हुई!  ईश्वर निराकार है

मोक्ष का द्वार

 समस्त योनियों मैं मनुष्य ही मोक्ष का अधिकारी है! यदि मनुष्य चाहे और सच्चा पुरशार्थ करे तो अपने हृदयाकाश मैं ईश्वर के साक्षात दर्शन कर सकता है! यह मनुष्य शरीर हमें अनंत जन्मों के बाद ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त हुआ है जिसका एक ही उदेश्य है की हमको अपने निज स्वरूप को पाकर आत्म शाक्षात्कार करना है जो केवल मानव योनि मैं ही संभव है अन्य किसी योनि मैं नहीं!  हम वास्तव मैं देह से भिन्न सदचित् आनंद स्वरूप परमात्मा का ही अंश है, यह शरीर हमें हमारे पुण्य कर्म व भक्ति के प्रतिफल के रूप मैं साधन हेतु ईश्वर प्राप्ति के लिए मिला है! अर्थात यह शरीर हम कदापि नहीं हैं हम शरीर से भिन्न हैं शरीर तो मात्र साधन है जो ईश्वर  की प्राप्ति के लिए मिला है!  यह बिलकुल स्पष्ट है कि प्राकृति के पाँच तत्वों से बना यह शरीर नश्वर व क्षणभंगुर है लेकिन इसके रहते ही मुक्ति संभव है यह इतना उपयोगी है की इसके रहते ही ईश्वर अर्थात अपने स्वरूप को हम पा सकते हैं जो किसी अन्य योनि मैं संभव नहीं है!  इस स्थूल देह मैं पाँच ज्ञानेंद्रिय (नेत्र, नासिका, कर्ण, जिवह्या व स्पर्श्येन्द्रिय) एवम पाँच करमेंद्रिय हैं तथा इन दशों इंद्रिय

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