मूल्यों का संरक्षण
मानव जीवन अमूल्य है क्योंकि मानव जीवन मैं ही आत्म उत्सर्ग संभव है। निसंदेह हम सौभाग्यशाली है जो हमारा जन्म भारतवर्ष जैसी तपोनिष्ठ भूमि पर हुआ है जहाँ ईश्वर के २३ अवतार हुए हैं जो इस बात का प्रमाण हैं कि हमारे पूर्वजों की ईश्वर खोज जिन विधाओं को प्रतिपादित करती है वे पूर्ण हैं और पूर्ण पुरुष परमात्मा से मिलाने वाली हैं निसंदेह यह हम को भली भाँति ज्ञात भी है।
किसी देश की संस्कृति तात्कालिक नहीं होती है वह उस देश के पूर्वजों के द्वारा समीचीन जी गई अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्रमिक संरक्षित होती है।
हमारी संस्कृति सनातन है जिसका न आदि है और न ही अंत। हमारे यहां हुए २३ अवतारों मैं राम और कृष्ण के दो अवतार ऐसे हैं जो क्रमशः ७५०० व ५००० वर्षों बाद भी सर्वाधिक पूजनीय व समाज के हर वर्ग के लिए भगवान ही हैं। राम और कृष्ण जैसे दो चरित्रों से हमारी संस्कृति सबसे ज्यादा समृद्ध और पूर्ण है जिनके जीवन चरित्र व उनके हितोपदेश एवम संदेश हमारे लिए ही नहीं अपितु संपूर्ण मानव जाति के लिए उपयोगी है। क्या हम वह सब जीकर भावी पीढ़ी के लिए नज़ीर बन पा रहे हैं।
आज पाश्चात्य देशों मैं राम और कृष्ण की मान्यता व भक्तों की संख्या गुणात्मक रूप बढ़ रही है क्योंकि उन्होंने यह जान लिया है की यही तात्विक ज्ञान है इसको यथेष्ट जीने से ही असीम शांति व आत्म उत्थान का मार्ग मिलेगा क्योंकि उन्होंने यह अनुभव कर लिया कि सनातन संस्कृति ही है जो शाश्वत है, परम पुरुष ईश्वर (राम और कृष्ण) से मिलाने वाली है। वे अपना सब कुछ त्याग कर सपरिवार ईश्वर भक्ति मैं लीन रहते हैं। उन देशों मैं जब उनकी टोली सड़कों पर भजन कीर्तन करती निकलती है तब वहाँ के लोग विमोहित होकर उनके साथ आनंद मैं नाचने लगते हैं। आज उनके बच्चे और स्वयम वे जिस वेश और परिवेश मैं रहते हैं, जिस तरह सांस्कृतिक जीवन जीते है कदाचित् हम ऐसा नहीं जी रहे हैं। वे अपनी भावी पीढ़ी को सांस्कृति को धरोहर के रूप मैं सौंप रहे हैं।
हम अपने राम कृष्ण के देश मैं अपनी भावी पीढ़ी को क्या दे रहे हैं। क्या यह गहन अंतः दर्शन का विषय नहीं है। जब हमारा अपना जीवन आधुनिकता व विलाशता की चकाचोंध मैं विलुप्त हो गया हो तब भावी पीढ़ी किसका अनु शरण करेगी? सतही जीवन जीने से आध्यात्मिक ऊर्जा व ज्ञान संचित नहीं हो सकता। हमें वो सब जीना होगा व करना होगा जो हम अपनी संतती से अपेक्षा करते है।
क्या हम आने वाली पीढ़ी को वो सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मान्यताओं के पालन की परिपाटी दे पा रहे हैं जो विरासत मैं हमें मिली थी? क्या हम वो सब दे पाए जो हमें हमारे परिवार से हमें मिली थी?
हम सब जानते हैं सत्य वचन, तदनरूप व्यवहार एवम सदाचार, स्वाध्याय, पारिवारिक धार्मिक आयोजन अनुष्ठान आदि क्या यथोचित हमारे परिवारों मैं हो रहे हैं जिनका आने वाली पीढ़ी भी अनुशरण कर सके?
हमारी शिक्षा पद्धति रोजगार, विज्ञान, शोधात्मक परक होने के साथ साथ कलात्मक, साहित्यक, नैतिक, ललित कला व सांस्कृतिक के मूल्यों की संवाहक भी होनी चाहिए न की विकास की दोड़ मैं जड़ों के विनास की। वर्तमान समय मैं विश्व की प्रतिस्पर्धा मैं आर्थिक, वैज्ञानिक विकास मैं उत्तरोत्तर व्रद्धि होनी चाहिए लेकिन सांस्कृतिक व मूल्यों की बली देकर नहीं। जब तक भारत की मूल आत्मा ही संरक्षित नही होगी तब यह विकास और सम्रद्धि बेमानी होगी।
हमें स्वयम सांस्कृतिक धरोहर का संवाहक व संरक्षक बनना पड़ेगा, अध्यात्मिक मूल्यों के साथ जीना पड़ेगा तभी हमारी पीढ़ी व समाज को सर्वोन्मुखी विकास दे पाएंगे।
जय सियाराम
Human life is priceless because self-emanation is only possible in human life. Of course, we are fortunate to have been born on the ascending land like Bharatvarsha where 23 incarnations of God have taken place, which is a proof that the pathologies our ancestors discovered in God are perfect and will be reconciled to the perfect male divine. Of course it is well known to us.
The culture of a country is not instantaneous, it is preserved progressively by the ancestors of that country for their future generations.
Our culture is eternal, which has neither beginning nor end. There are two incarnations of Rama and Krishna in the 23 incarnations that took place here, who are the most revered and God for every section of the society even after 6500 and 5000 years respectively. Our culture is most prosperous and full of two characters like Rama and Krishna, whose life character and their interests and message is useful not only for us but for the entire human race. Are we able to live all that and become a Nazir for the future generation?
Today, in the western countries, the recognition of Rama and Krishna and the number of devotees is increasing qualitatively because they have realized that this is the basic knowledge, only by living it properly will get the path of infinite peace and self-upliftment because they have realized that Sanatan It is the culture that is eternal, the ultimate Purusha (Rama and Krishna) to be reconciled with God. They renounce everything and remain absorbed in family devotion. In those countries, when their group comes out to do bhajan kirtan on the streets, then the people there get disoriented and start dancing with them. Today, their children and the way in which they live in their own cultural environment, perhaps we are not living like this. They are handing over culture as a heritage to their future generations.
What are we giving to our future generations in our country of Rama Krishna. Is it not a matter of deep inner philosophy? When our own life has become extinct in the glare of modernity and luxury, then whose future generation will take shelter? Spiritual energy and knowledge cannot be accumulated by living a superficial life. We have to live and do what we expect from our offspring.
Are we able to give the coming generations the practice of following the cultural, spiritual beliefs that we inherited? Could we give all that we got from our family?
We all know the truth, the corresponding behavior and virtue, self-study, family religious ceremonies, rituals, etc. Are these being done in our families, which the future generations can also observe?
Our education system should be a carrier of employment, science, research, as well as the values of artistic, literary, moral, fine arts and cultural and not the roots of development. At the present time, there should be a progressive increase in economic, scientific development in the world competition, but not by giving cultural and values well. Unless the original soul of India is preserved, then this development and prosperity will be meaningless.
We have to be the conductors and protectors of our own cultural heritage, we will have to live with spiritual values only then we will be able to give all-round development to our generation and society.
Hail Siya Ram
जय श्री राम
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रयास, संस्कृति अवमूल्यन को रोकने की सब कहते हैं पर पहली बार इस लेख में संस्कृति के उत्थान के लिए कारकों पर चर्चा की गई है। दायित्व बोध के पक्ष को उजागर किया गया है। साधुवाद
ReplyDeleteसत्य है परन्तु पहल तो हम ही अपने परिवारों से करनी होगी क्योंकि हम कह और सुन तो बहुत लेते है पर अमल कितने लोग करते है शायद उंगलियों पर गिनने लायक ही जय श्री राम
ReplyDeleteनिसंदेह तुम्हारा दृष्टिकोण पूर्ण व्यवहारिक है। इस मार्ग मैं हम क्या कर सकते हैं यही हमारे अधिकार क्षेत्र मैं है। अगर हर व्यक्ति व परिवार जागरूक हो जाए तो तदनुसार समाज भी।
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