स्वयम की खोज

 स्वयम की खोज, यध्यपि प्रकटतः एक जटिल विषय तो है क्योंकि इसमें खोज करने वाला ही खुद अपने आप की खोज करता है, लेकिन यह अतार्किक व अव्यवहारिक नहीं है। 

भौतिक जगत में खोज का आधार वाह्य दृश्यमान जगत होता है अर्थात जिसका आधार सन्मुख व्याप्त पदार्थगत भौतिक विषय होता है जो दिखाई दे रहा है, स्पष्ट है एवम प्राप्तव्य है जिसके प्रति हमारी जिज्ञासा प्रेरणा का कारण बनती है और खोज का विषय भी। 

इसके बिपरीत स्वयम की खोज के लिए हमारे समक्ष हम स्वयम ही होते हैं अर्थात हमें ही खुद की खोज अपने आप करनी होती है। यह हमारे लिए जटिल तो हो सकती है लेकिन अव्यवहारिक कदापि नहीं अपितु जीवन की सोदेश्यता के लिए परम आवश्यक भी है। यदि हम स्वयम को जान पाए तो बाह्य जगत को जानना फिर निशेष हो जाता है अर्थात अनावश्यक। स्वयं की खोज् के लिए भी जिज्ञासा उत्कंठा का होना अति आवश्यक है। 

में कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और संपूर्ण जगत अंततः किसकी रचना है। इन यक्ष प्रश्नो को लेकर हम स्वयम की खोज के लिए प्रेरित होते हैं। 

वर्तमान में हमारे पास ग्रंथ हैं, तपोनिष्ठ संतों का सनातन ज्ञान है, निर्विवाद पंथ एवम स्वयम का विवेक है लेकिन यदि जिज्ञासा नहीं तो हम स्वयम को कभी नहीं जान सकते भले ही दूसरों को कितना भी जानलें। 

हमारे समक्ष भागवत गीता भगवान श्री कृष्ण के मुख से निकला वह ज्ञान है जो संपूर्ण विश्व को स्वीकार्य है। जिसमें हमारी प्रतेक जिज्ञासा का वैज्ञानिक तर्क संगत समाधान निहित है। यध्यपि हमारे समस्त ग्रंथ वेद, उपनिषद, रामायण आदि व अन्य सभी ग्रंथ एक तत्व की जो व्याख्या करते हैं वह अद्वेत् एवम द्वेत् ब्रह्म ही है जिसमें "अहं ब्रह्माश्मि" अर्थात मैं ब्रह्म हूँ। यह ज्ञान स्पष्ट है व निर्विवाद है। 

अब मैं शरीर नहीं अर्थात देह से पूर्णतः भिन्न ब्रह्म ही हूँ यह खोज ही स्वयम की खोज है। 

शास्त्रोक्त ब्रह्म निर्विकारी सास्वत परम चेतना है जिसका न आदि है न अंत है जो सर्वस्व समान रूप मै व्याप्त अपरिवर्तनीय तत्व है जो परमात्मा अर्थात परम आत्मा ही है वही अंश रूप में जीवात्मा है जो माया के वशीभूत होकर शरीर रूप में जीवन और मृत्यु  को प्राप्त होती है। जीवात्मा का जन्म उसके शुक्ष्म शरीर के कारण होता है जब प्राणी प्रकृति के पंच भूतों से विमुक्त अपने निज स्वरूप अर्थात अमल आत्मा का साक्षात्कार करता है तब उसके देहिक, देविक एवम भौतिक बंधनों की विस्मृति होती है और तब वह जीवात्मा मुक्त होकर जीवन मृत्यु के चक्र से बाहर हो जाता है। यह मुक्तआत्मा ईश्वरत्व को प्राप्त होती है। यही हमारी मानव योनि का उदेश्य है जो इसी योनि मै संभव है। 

अब हमें जगत का नहीं ईश्वर वो चाहे राम, कृष्ण या कोई भी देव या देवी (आदि शक्ति) हो का आश्रय लेना होगा एवम सतत में शरीर कदापि नहीं हूँ अनुभव ही नहीं जीना होगा आपकी सत्य निष्ठा, जिज्ञासा व तीब्र उत्कंठा तब वो परम चेतना आपको अमल करती जायेगी आप पात्रता को प्राप्त होंगे और इस देह के रहते ही आप देहाभिमान मुक्त हो जायेंगे। देहाभिमान से मुक्त होते आप समस्त बंधनों से मुक्त हो जायेंगे। आप माया (प्रकृति) के सारे बंधनों से अलग परम तत्व होंगे। 

तब आप जो है वो खोज पूरी होगी जहाँ न में किसीका न कोई मेरा, न इंद्रिय जनित संप्रेष्णाएँ होंगी, न सुख न दुख, न जीवन न मृत्यु बस केवल और केवल परम् आनंद आल्हाद ही आल्हाद। बस जीवात्मा यही है जो उस ईश्वर का ही अंश है जिसे पाने के लिए ही यह शरीर मिला है

जय सियाराम। 




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